Holi Geet

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लेखक: Dr.Ramashanker Kushwaha (rsmoon.kushwaha@gmail.com)

भारतीय परंपरा में होली सबसे पुराने त्यौहारों में से एक है। यह ऋषि और कृषि समाज का उत्सव है। पूरे देश में मनाया जाता है। हर क्षेत्र विशेष में होली गाने/मनाने की परंपरा अलग है। रंग और संगीत दोनों साथ चलते हैं। यह कहीं पांच दिन-सात दिन, तो कहीं महीने भर का उत्सव है। भोजपुरी जनपद में माघ मास की शुक्ल पंचमी (बसंत पंचमी) के दिन से फगुआ के लिए ढोलक चढ़ जाती है। लगभग महीने भर बाद होली के दिन इस परंपरा का चर्मोत्कर्ष होता है। बसंत पंचमी के दिन से सम्मत (होलिका) के लिए तैयारी शुरू हो जाती है। एक साबूत सुपारी, सवा रुपया, ऊख (गन्ना) का एक पौध, फुनगी के साथ हरे बांस की कईन, हरा रेड़ (अरंडी), गेहूं, जौ, चना, मटर, सरसो आदि के पौधे को जमीन में रोप कर होलिका की नींव डाली जाती है। उसके बाद होलिका दहन के लिए गांव के लोग गोहरा (उपला), चइला, सूखा पेड़, काठ, बांस आदि उस स्थान पर इकठ्ठा करते हैं। यह प्रक्रिया महीने भर चलती है। होलिका दहन के दिन हुड़दंगी किसी की भी मड़ई/टाटी (झोपड़ी) उठा ले जाते हैं। होली की पूर्व संध्या/रात्रि पर होलिका दहन मुहुर्त के अनुसार किया जाता है। उसके ठीक पहले घर के सभी सदस्यों को बुकवा (ऊबटन) लगाया जाता है। उस बुकवा से जो भी मैल निकलती है उसको ले जाकर सम्मत में डाल दिया जाता है। ऐसी मान्यता है कि इससे दुख-दारिद्र दूर हो जाता है। हारी-बीमारी सब ख़त्म हो जाति है। साल भर की समस्या होलिका के साथ ही जल जाती है।

        होलिका जलते ही गांव में हुड़दंगियों का समूह सक्रिय हो जाता है। सब अपने पदीहा (खासकर भउजाई) का नाम लेकर जोगिरा बोलते हैं। इसके केंद्र में आंतरिक भावों का उद्गार रहता है। यह भाव कई बार सामाजिक दृष्टि से अशोभनीय शब्दों के द्वारा भी व्यक्त होते हैं। इसको सामाजिक बनाने के लिए ‘बुरा ना मानो होली है’ का जुमला साथ चलता है। इस दृष्टि से होली उत्साह और धैर्य का भी त्यौहार है।

        यह भाव तुकबंदी और गीत के माध्यम से व्यक्त होते हैं। इस समय युवा रचनाशीलता आसु कविता के रूप में उपफान पर रहती है। नई-नई तुकबंदियां सुनने को मिलती हैं। जो जितना ज्यादा रचनाशील होता है उसे उतना अधिक जोगिरा बोलने का मौका दिया जाता है। इस रचनाशीलता में भदेस (फुहड़पन) भी अपने चरम पर रहती है। इसे स्त्रियां रस लेकर सुनती हैं। देवरों का यह भाव भाभियों के स्वभाव के अनुसार व्यक्त होता है। जो शांत स्वभाव की भाभियां होती हैं उनको लोग कम तंग करते हैं। चंचल और मुखर स्वभाव की भाभियां को अधिक परेशान किया जाता है। असल में वे परेशान नहीं होती, बल्कि समान रूप से वह भी इस उत्सव और सामाजिक छूट का खूब आनंद लेती हैं। खूब मसखरी-ठिठोली चलती है।

        होलिका दहन के लिए केवल पुरुष जाते हैं। उस समय गांव भर की स्त्रियां गांव के एक छोर पर इकठ्ठी होती हैं और गीत गाती हैं। उनकी गीतों में भजन के साथ हास-परिहास-उल्लास का भाव रहता है। दुआएं रहती हैं। लोक की बड़ी विशेषता यह रही है कि वह कभी अमर्यादित नहीं होता। सीमा नहीं तोड़ता। नियंत्रण के तरीके साथ चलते हैं। उदाहरण के लिए हुड़दंगों की गतिविधियों पर बड़े-बुजुर्ग निगाह लगाए रखते थे। इससे अभद्रता नहीं होती थी। युवाओं में भी ऐसे लोगों का प्रभाव था। उनकी कद्र थी। अब जो जगह-जगह झगड़े-झंटे सुनने में आते हैं, वह तो नशा के आधुनिक तरल पदार्थ की प्रतिक्रिया है। जिसका आस्वादन करने के बाद इंसान अपना-पराया, अच्छा-बुरा सब भूल जाता है। लोक-मर्यादा ताक पर रखने की परम्परा शराबखोरी के बाद शुरू हुई। इसके पहले भांग पीने की परम्परा थी, लेकिन वह मर्यादित परम्परा थी।

        हुड़दंगों की टोली रात में ही कीचड़/गोबर के साथ होली खेलना शुरू कर देती है। उम्रदराज और चिड़चिड़े स्वभाव के लोगों को जानबूझकर तंग किया जाता है। क्योंकि वे लोग परेशान करने वालों को खूब अपशब्द कहते हैं। इस दिन जो भी घटित होता है, उसे देखकर यही कहा जा सकता है कि कृषक समाज ने साल में फुहड़पन के लिए भी एक दिन सुनिश्चित कर रखा है। ताज्जुब यह है कि यहां ‘फुहड़पन भी मर्यादित’ होता है। वातावरण की मधुरता भंग नहीं होती। सब उमंग में होते हैं। उल्लसित रहते हैं। इस भदेसपन में भांग का तड़का और अधिक उल्लास भर देता है। भंग का आस्वादक शराबियों की तरह कभी किसी और को परेशन नहीं करता।

        होली (धुरहंडी) के दिन पकवान बनता है। रंग-गुलाल के साथ संगीत भी सबाब पर होती है। दिन में आधे पहर के बाद संगीत शुरू होती है। इस संगीत में बहुत विविधता होती है। भजन-कीर्तन से लेकर, खेती-किसानी, हास-परिहास और बिरह के गीत गाए जाते हैं। प्रारंभ देवी सुमिरन के साथ होता हैः-

‘सुमिरो आज भवानी हो माया, सुमिरो आज भवानी/

कहवां भवानी मइया जन्म हुआ है, कहवां जाई समाई हो माया?

इहवां भवानी मइया जन्म हुआ है/ विंध्यांचल में समाई हो माया।’

        होली बिना शिव को याद किए कैसे पूरी हो सकती है और जब शिव को याद करेंगे तो गउरा (पार्वती) भी साथ ही होंगी। देवी के सुमिरन के बाद ‘शिव-गउरा’ को होली खेलते हुए याद किया जाता है- 

‘शिवशंकर खेलै फाग गउरा संग लिए।

काही चढ़ल शिवशंकर खेलैं, काही चढ़ल भगवान गउरा संग लिए?

बसहा (बूढ़ा बैल) चढ़ल शिवशंकर खेलैं, गरुण चढ़ल भगवान, गउरा संग लिए।’

        इसके बाद शुरू होती है हुड़दंगा। जिसमें जोगिरा से लेकर हास-परिहास लोकधुनों और ढोलक-झाल-पखावज जैसे वाद्ययंत्रों के माध्यम से व्यक्त किया जाता है। अनेकानेक विषय होते हैं गीत में। 

        ईश बंदना के बाद ज्यादातर शुरुआत खेती-किसानी से संबंधित गानों से होती है। खेती-किसानी में स्त्रियां भी जुड़ी रहती हैं। बल्कि यह कहना कि उनकी बराबर की भूमिका होती है, अतिशयोक्ति नहीं होगी। यह अलग बात है कि वहां भी समाज मुखिया पुरुष को ही मानता है और पुरुष अपनी मनमानी करने से बाज नहीं आता। शिकायत करने पर लड़ने पर उतारू हो जाता है। इसी प्रकार के भाव को व्यक्त करने वाली और फागुन में गाई जाने वाली एक गीत हैः-

‘बेरिया के बेर हम बरजी बलमुआ की उख जनि बो….वा हो गोइड़वां,

बोवत क मास लागे छवही महीना, काटत लागे…हो बरिसवा,

सोरहो सिंगार कइके गइलीं कोल्हड़वां, लवाही घिंच मा….रे हो बलमुवा।’

        होली में भाभी-देवर का हास-परिहास चरम पर होता है। गांव के रचनाशील लोगों के लिए इस तरह के विषय कच्चा माल की तरह होते हैं। इस समय उनकी रचनाशीलता अपनी पूरी बारीकी और कलात्मकता के साथ उपफान पर रहती है। यह कपोल-कल्पित नहीं बल्कि रचनाकार के व्यक्तिगत अनुभव और समाजदर्शन को व्यक्त करती है। देवर भाभी के हास-परिहास पर एक गीत हैः- ‘भउजी क मरकहवा कजरवा सबके दीवाना बनवले बा,

 आंख में कजरा, बाल में गजरा, होठ पर लाली लगवले बा,

 भउजी का मरकहवा कजरवा….।

        नायिका के बिरह के लिए बारहमासा वर्णन साहित्य में बहुप्रचलित है। कालिदास और मलिक मुहम्मद जायसी तक ने इस पर हाथ आजमाया है। लोक में भी इसका प्रचलन कम नहीं है। यहां बारहमासा के बजाय ट्टतु-वर्णन की परंपरा है। उसका कारण यह है कि किसान की फसल ‘ट्टतु-परिवर्तन’ से जुड़ी है। भोजपुरी फगुआ में भी इस ऋतुवर्णन के रूप आप देख सकते हैं-

‘मोरे सइयां के सूरत नगीनवा हो नगीनवा, ना घर अइलन सजनवा।

चार महीना बा गरमी क दिनवां, टप-टप चुवे पसीनवा हो पसीनवा…ना घर अइले….।

चार महीना बरसात क दिनवा, टप-टप चुवे भवनावां हो भवनवां….ना घर अइले…..।

चार महीना बा जाड़ा क दिनवा, थर-थर कांपे बदनवां बदनवां…ना घर अइले…..।

(नायिका के पति बाहर हैं। प्रत्येक ऋतु में उसको अलग तरह का कष्ट होता है। वह अपने कष्ट को महीने के अनुसार होने वाले दुख से जोड़कर बताती है। इस विरह का रूप बहुत व्यापक है।)

        ऋतु वर्णन से इतर भी कई ऐसे गीत हैं जिसमें विरह का वर्णन देखने को मिलता है। राधा जब पानी भरने जाती थीं तो वहां कृष्ण मिलते थे। वे तालाब के पानी से कपड़ा गिला कर देते थे। लेकिन इस बार के फागुन में ऐसा नहीं हुआ। वह अपनी सखी ललिता को बताती हैं-

‘फगुनवा दिनवा ना अइले मोहनवा ए ललिता……।

पानी भरे जात रहलीं ओही पानी घटवा अइ हो बाबा…।

ललका झुलवा भीजेला मोहनवा ए ललिता……।

        फगुआ के ताल के बराबर में ही एक गीत और चलती है, जिसे ‘लचारी’ कहते हैं। इसे भी ‘एकहरी ताल’ में ही गाया जाता है। यह भोजपुरी गायन की एक विधा है। इसमें प्रचलित एक गीत का भाव यह है कि देवर को भाभी घर मे बुलाती है और दरवाजा बंद कर देती है। इससे देवर डर जाता है। उसको समझ नहीं आता है कि भइया पूछेंगे तो मैं क्या जवाब दूंगा। वह मेरे गलत व्यवहार के कारण घर से बाहर निकाल देंगे। इस क्रम में देवर-भाभी प्रश्न-प्रतिप्रश्न करते हैं। यह गीत संवाद शैली में कुछ इस प्रकार है-

‘काहे खातिन भउजी हमके घरवा में बोलवलू, काहे हो देहलू ना, भउजी हे बजरन (मजबूत) केवड़िया ?/ हंसहि खेलइके देवरु घरवा में बोलवलीं, सूते हो खातिन ना, देहली हे बजरन केवड़िया। /हंसत खेलत क देवरु बड़ा नीक लागेला, कि दिनवा हो दिनवा ना, हमार देहिया गढ़ूवइलीं…/ जेहि जानि जइहे देवरू तोहरो बड़का भइया, तो करि हो दी हे ना, हमके घरवा से बहरिया।’

        ऐसे ही एक लचारी में ननद-भाभी का संवाद है। यह सवाल-जवाब की शैली में है। वह संवाद लोक में प्रचलित रूपक का सुंदर उदाहरण हैः-

‘कवने रंग मूंगवा कवन रंग मोतिया, कवन हो रंगवा ना, ननदी रे तोर बिरना?

लाले रंग मूंगवा, सबूज (सफेद) रंग मोतियां, सांवर हो रंगवा ना….ननदी रे तोर बिरना…../ काही भइले मूंगवा, काही रे भइले मोतिया काही रे भइले ना, ननदी रे तोर बिरना?/ टूटी गइले मूंगवा, छटकी गइले मोतिया, कोहांई रे गइले ना, ननदी रे तोर बिरना।’

        यह लोक का रंग है जो अनेकानेक प्रकार से फागुन मास में यत्र-तत्र बिखरता है। इसकी सुगंध् बसंत पंचमी से फैलनी शुरू हो जाती है और एक महीने तक प्रदेश की जनता को अपने रंग में सराबोर किए रहती है। इसका आस्वादक कभी उबता नहीं। थकता नहीं। ताजगी से सराबोर रहता है। होली तक ही नहीं, उसके बाद ‘बुढ़वा मंगल’ तक ढोलक की थाप पर पांव की थिरकन रूकती नहीं है।

Youth in addiction

Youth in addiction

नशे की जद में युवा

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लेखक: Dr.Ramashanker Kushwaha (rsmoon.kushwaha@gmail.com)

        युवाओं में नशे की लत तेजी से बढ़ रही है। आंकड़े बताते हैं कि नशाखोरी में सदैव एक उम्र विशेष के लोग ही शामिल रहे हैं। अंतर इतना है कि पहले नशा चोरी-छीपे होता था। अब यह फैशन बनता जा रहा है। इस फैशन का सबसे बुरा पहलू है उन युवाओं में इसका प्रचलन बढ़ना, जो नाबालिग हैं। नशाखोरी का यह कारोबार शैक्षणिक संस्थाओं के आसपास विकसित होने लगा है। दिल्ली-एनसीआर स्थित शैक्षणिक संस्थाएं और उनसे लगे बाजारों में इस धंधे का विस्तार बहुत तेजी से हो रहा है। हाल ही में नोएडा स्थित दो संस्थानों के छात्र गांजा बेचते हुए पकड़े गए। उनकी गिरफ्तारी से पता चला कि समस्या काफी बढ़ गई है। पकड़े गए छात्र जिन संस्थानों से सम्बद्ध थे, वह इस प्रकार के संस्थान हैं जिसमें पढ़ने वाले लाखों रुपए की फीस देकर इंजिनियरिंग और कुछ अन्य व्यावसायिक कोर्स करने आते हैं। इसमें पढ़ने वाले अधिकांश बच्चे आर्थिक रूप से समृद्ध हैं। यदि कुछ कम समृद्ध हैं तो भी इंजीनियर बनने के सपने के साथ दूर-दराज से वहां आए हैं और कुछ करने का प्रयास उनका भी है।

        यह सत्य है कि नई पीढ़ी कई प्रकार के दबाव और हताशा से गुजर रही है। कई साल की कड़ी मेहनत के बाद किसी कोर्स में दाखिला मिलता है। फिर उसकी फीस भरने के साथ अन्य कई समस्याएँ आती हैं। ज्यादातर व्यावसायिक कोर्स में बच्चों को लोन आदि लेकर जैसे-तैसे पढ़ाई पूरी करनी पड़ती है। उसके बाद नौकरी की समस्या शुरू होती है। ऐसे में बच्चे कई प्रकार के तनाव से गुजरते हैं। इसी तनाव का लाभ लेकर उन्हें नशे की लत लगा दी जाती है। इसमें जो नशे का सेवन करते हैं, उनके लिए तनाव और विद्यार्थी रहते हुए जो व्यापार करने लगते हैं, उनके लिए पैसे का लालच, यह दोनों बातें सामानांतर चलती हैं।

        विश्वविद्यालय और उसके आसपास इस तरह का कारोबार बहुत तेजी से बढ़ रहा है। उदाहरण के लिए दिल्ली विश्वविद्यालय (उत्तरी परिसर) के आसपास कमला नगर और गुरुतेग बहादुर नगर, बाजार के लिहाज से दो प्रमुख जगहे हैं। इसमें कमला नगर तो पहले से ही काफी विकसित है। इसको छोटा क्नाट प्लेस भी कहा जाता है। गुरु तेगबहादुर नगर स्थित बाजार का विकास पिछले कुछ वर्षों में बहुत तेजी से हुआ है। इसमें खुलने वाली अधिकांश दुकाने ‘रेस्तरां, स्पा, बार’ आदि नाम से हैं। इसमें हुक्का और ई-सिगरेट का प्रचलन काफी ज्यादा है। इसमें जाने वाले उपभोक्ता के रूप में अधिकांश 15 से 25 वर्ष के बीच के बच्चे हैं। खासकर स्कूल और महाविद्यालय में पढ़ने वाले छात्र-छात्राएं अधिक जाते हैं। किसी बच्चे से उन दुकानों में मिलने वाली सुविधाओं के बारे में बात करें तो वह दबी जबान से यह कहते हैं कि ‘आप को जो चाहिए, यहाँ सब मिलेगा’।

        कमला नगर में मुख्य मार्ग से अंदर के घरों में इस प्रकार की दुकानें अधिक खुली हैं, जिनको रेस्तरां, बार, स्पा आदि नाम से जाना जाता है। उत्तरी दिल्ली में सत्यवती कालेज के बगल में स्थित डीडीए बाजार में भी इस प्रकार की दुकाने हैं। ऐसी दुकानों में जाने वाले उपभोक्ताओं की उम्र सब जगह लगभग एक जैसी ही है। शाम को यदि आप इन दुकानों के आसपास हों तो आप बच्चों के व्यवहार और उनकी गतिविधि को देखकर समझ सकते हैं कि वह किस स्थिति की तरफ बढ़ रहे हैं। दुकान से बहार निकलने वाले किसी भी बच्चे के पैर में लड़खड़ाहट आसानी से देख सकते हैं।

        पंजाब में नशाखोरी अपने चरम पर है। इसकी जद में सबसे अधिक युवा हैं। स्वाभाविक है वहां यह हालत एक दिन में नहीं पैदा हुई है। कम से कम दो से तीन पीढ़ी तक इसका धीरे-धीरे विकास हुआ और किसी ने इसकी तरफ ध्यान नहीं दिया। देश में इस प्रकार की समस्याओं के लिए कानून कम नहीं हैं। समस्या उनके पालन की है। कानून का पालन करवाने वाले उसका हिस्सा बन जाते हैं। जब समस्या शुरू होती है, तो वह उसको दरकिनार करते हैं। धीरे-धीरे स्थिति अनियंत्रित होने लगती है। तब उस समस्या पर बात करना और उसका समाधान खोजना बहुत कठिन हो जाता है। उदाहरण के लिए कमला नगर और जीटीबी नगर में इस प्रकार का धंधा बहुत तेजी से पनप रहा है। न्यायालय का नियम यह है कि महाविद्यालय/स्कूल के आसपास नशे का सामान बेचने वाली कोई दुकान नहीं होगी। जबकि यह सभी दुकानें एक किलोमीटर के अंदर हैं। दूसरा उसका उपभोक्ता 18 वर्ष से कम उम्र का नहीं होगा। लेकिन इसमें जाने वालों की उम्र देखने की जहमत किसी ‘बार-रेस्तरां-स्पा’ का मालिक नहीं उठाता। क्योंकि उनको अपनी आमदनी से मतलब है।

        नशाखोरी की समस्या बहुत बड़ी समस्या है। दुनियां के कई देश इस समस्या में बुरी तरह उलझ गए हैं। थाईलैंड की सरकार को उसकी भयावहता को देखते हुए नशे के कारोबारियों को ‘देखते ही गोली मारने’ का आदेश जारी करना पड़ा। इसकी कल्पना करना मुश्किल नहीं कि किसी देश की सरकार ऐसा आदेश कब देती है। दक्षिण अफ्रीका के कई देश इस समस्या से जूझ रहे हैं। स्पेन और जर्मनी जैसे देश युवाओं में बढ़ रही नशाखोरी के खिलाफ़ सख्त कानून की मांग कर रहे हैं। सरकार ड्रग्स और अल्कोहल से जितना इससे टैक्स कमाती है, उससे अधिक नशाखोरी से होने वाली बुराइयों और बीमारियों के इलाज पर उसे खर्च करना पड़ता है। एक रिपोर्ट के अनुसार बीड़ी बेचने से सरकार को जितना मुनाफा होता है, उसका तीन गुना उससे होने वाली बीमारी टीवी और दमा के उपचार पर खर्च करना पड़ता है। नशाखोरी किसी भी देश के लिए बहुत घातक है। सरकर को इस तरह की समस्याओं पर तत्काल विचार कर गंभीरता से उसका निदान करना चाहिए। यह अच्छी बात है कि दुनियाँ के कई देशों में इन समस्याओं को लेकर चिंता बढ़ रही है। लेकिन जरुरत है जल्दी से कुछ सकारात्मक कदम उठाने की।

धन्यवाद

… कहां जाईं, का करीं!

… कहां जाईं, का करीं!

श्रमिक समाज की त्रासदी (True Story)

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लेखक: Dr.Ramashanker Kushwaha (rsmoon.kushwaha@gmail.com)

सुक्खु बांसफोर को हम लोग तबसे देख रहे हैं जब स्कूल में जाते थे। वे गांव में आते थे और कहते थे- दौरी ले ला, डाली ले ला, कुरुई ले ला। वे बांस से बनी हुई इस प्रकार की बहुत सारी वस्तुएं लेकर आते थे। उनकी वस्तुओं में बच्चों के खेलने वाले झुनझुना से लेकर घर और खेती में काम आने वाले बांस के बरतन आदि होते थे। खासकर जब रबी और खरीफ की फसल कटने का समय होता तब उनका आना बढ़ जाता था। उनके द्वारा लाए जाने वाले स्व निर्मित सामानों का आकार प्रकार बदल जाता। इसका कारण था। फसल के उतरने के समय किसानों की जरूरतें बढ़ जाती थीं। फसल उतरने पर सुक्खु और टूघूर दोनों भाई इतना कमा लेते थे कि उनका साल भर रोटी का काम चले और बांस खरीदने का प्रबंध् भी हो जाय। फसल कटने पर किसान भी खुशी से सामान लेता और दाम में ज्यादा मोलचाल नहीं करता था। तब वस्तु विनिमय का प्रचलन था। किसान के सहारे ही सामान बनाने वाले भी सुखी थे। घर में अनाज का संकट नहीं था। पैसा लोगों के पास बहुत कम था। उसका आदान-प्रदान कम ही होता था। व्यावहारिक दृष्टि से देखें तो ऐसा लगता है कि पैसे के अवमूल्यन के साथ भोजन का संकट बढ़ गया है। सुक्खु बताते हैं-‘बाबू वो समय कुछ और था। हम किसी के मोहताज नहीं थे। अपना गुण था और लोगों की जरूरत। इससे हमारा काम बहुत ठीक चलता था। उसी से हम शादी-विवाह, त्यौहार सब कर लेते थे। अब तो बार-बार सरकार और उसकी योजनाओं का इंतजार करना पड़ता है। आए न आए। आ भी गई, तो वह जमीन पर हमें कितनी मिलती हैं, यह सब जानते हैं।’

आज श्रमिक समाज की हकीकत क्या है, इसको जानने के लिए सुक्खु जैसे कारीगर मजदूर की बातों को समझना जरूरी है। वे बहुत दुखी मन से बताते हैं- ‘अब पहले जैसे हालात नहीं हैं। कोई हमारी सुध लेने वाला नहीं। आबादी कम होने के कारण हम लोग दबाव नहीं बना सकते। हमारा कोई नेता नहीं। समस्या को उठाने वाला कोई नहीं। हमारी बात कौन करेगा। सब अपनी जात और बात में लगे हैं। हमारे लिए कोई नहीं है। हम लोग पढ़े नहीं। व्यापार किए नहीं। खेती-बारी है नहीं। रुपए में चार आना ही लोग ऐसे हैं जिनके पास जमीन है। वह भी इतनी किसी के पास नहीं है कि परिवार पाल ले। इसमें बहुत तो ऐसे हैं जिनके पास रहने की भी जगह नहीं है। ऐसे ही कहीं झोपड़ी डाले रोड पर आप को मिल जाएंगे। उनका कोई स्थायी ठिकाना नहीं है। वे लोग सपरिवार मौसम की मार सहते हुए जैसे-तैसे जीवन यापन कर रहे हैं।’

उनके घर जाकर लगा कि इस प्रकार के लोगों की समस्या बहुत सामान्य नहीं है। दुर्दिन से गुजर रहे हैं। उन्होंने बतायाः ‘बाबू! सपने ज्यादा नहीं थे। छोटी उमर में शादी हो जाती थी। परदा कुछ खास नहीं था। सब काम करते थे। जो भी होता था उसी में जी लेते थे। शिक्षा मिली नहीं। और कोई हूनर नहीं आया, क्योंकि सोचे नहीं। छाए में बैठकर दौरी-डाली बनाते रहे। अब आदत ऐसी हो गई कि बाकी जातियों की तरह मजदूरी भी नहीं कर पाएंगे। और जो कर रहे हैं उनको मजदूरी भी रोज कहां मिल रही। एक दिन मिलती है तो एक महीना खाली हैं। अपना धंधा रहा नहीं। जैसे-तैसे समय काट रहे हैं। ये जो प्लास्टिक का व्यापार है, उसने हमारा काम और ज्यादा चौपट कर दिया। अब यह सरकार विचार करे कि हम क्या करें और कैसे जिएं। साहब गांव में बांस का बहुत अभाव है। हम लोग आजकल बांस वैसे खोजते हैं जैसे कोई‘वर’ खोजता है। सिफारिश करना पड़ता है। उसपर भी किसान इतना पैसा मांग देता है कि हमारी औकात से बाहर हो जाता है।

इस महंगाई का एक कारण और है। बांस खरीदकर कंपनी वाले लोग पेपर बना रहे हैं। उनकी आमदनी ज्यादा है। ज्यादा पैसे देकर खरीदते हैं। हमारे पास न उतना पैसा है, न उतनी आमदनी। समस्या यह है कि जब भोजन पानी नहीं मिलेगा तो आदमी गलत काम करेगा। घर में चार लोग हैं। उपवास कब तक करेंगे। इससे नक्सलाईट बढ़ेगा।’ बांसपफोर लोगों की शिकायत यह भी है कि सरकार ने कुम्हारों को जमीन दे दी कि इसमें से मिट्टी निकालकर आप बर्तन बनाइए। अपना रोजी-रोजगार चलाइए। लेकिन श्रम से आजीविका चलाने वाले बाकी किसी बिरादरी को कुछ नहीं मिला। 

मुख्य बात यह है कि समय की मार और दुर्व्यवस्था के शिकार केवल बांसफोर नहीं हैं। इनके साथ लुहार, कुम्हार, बढ़ई, मुसहर, दर्जी आदि कई जातियां हैं, जिनका पारंपरिक व्यवसाय नष्ट हो गया है। इससे उनमें बेरोजगारी और आक्रोश है। जीवन के दबाव के कारण आत्महत्या करने वालों में ये लोग भी शामिल हैं। यह अलग बात है कि सरकारें उनको उनकी पारंपरिक पहचान के साथ नहीं बल्कि किसान के रूप में ही गिनती/बताती हैं।

यहां हमें सहज ही सम्राट अशोक याद आते हैं। उन्होंने ग्राम और नगर में ऐसी व्यवस्था कायम की थी जिससे सब अपने-अपने व्यवसाय को लेकर चलते थे। इससे उनमें आपसी परनिर्भरता कायम थी। पूरा समाज एक-दूसरे की मदद करता था। इससे ऐसी व्यवस्था नहीं पनप सकी जिसमें इतनी असमानता हो कि 85 प्रतिशत संपत्ति केवल 15 प्रतिशत लोगों के पास हो। अशोक के बाद का समाज धीरे-धीरे व्यक्तिगत स्वार्थ में डूब गया। सबल जातियों का बोलबाला बढ़ा। सत्ता के केन्द्र में रहने वाले केवल अपने को उसका हकदार मानने लगे और जो उससे बाहर थे,वे केवल श्रमिक ही रह गए। उसका परिणाम है कि आज भी अन्न दाता किसान के लिए सरकार के पास कोई ठोस नीति नहीं है। उसके दिवालिया होने पर किसी प्रकार के ‘बेलआउट पैकेज’ का प्रबंध् नहीं है। न किसान का जीवनबीमा है और न ही उसकी खेती का। यदि है भी तो उसका पालन नहीं होता। साधरण और कई मामलों में जरूरत से ज्यादा सीधे किसान जब तक किसी योजना को समझते हैं, उसका लाभ लेने का प्रयास करते हैं, तब तक वह योजना ही खत्म हो जाती है- यह कहते हुए कि इसमें सरकार के पैसे की बर्वादी हो रही है। समस्या बहुत बड़ी है। इससे गांव धर्म और जातिगत राजनीति के भयंकर खेल के के साथ ही अंदर-अंदर सुलग रहे हैं। रोजगार नहीं है। शिक्षा नहीं है। स्वास्थ्य के लिए कोई व्यवस्था नहीं है। जो है वह इतनी भ्रष्ट है कि लोग उसका उपयोग करने से ‘घबराते’ हैं। युवा पीढ़ी किसी बांसफोड़ की हो या किसान की, इस व्यवस्था में अपने लिए कुछ भी नहीं तलाश पा रही है।       

समय की मार अधिकतर श्रमिकों पर पड़ी है। राजनेता उसको लेकर चिंतित नहीं हैं, बल्कि उसको अपने तरीके से भुनाने में लगे हैं। उनके पास बहुत सी योजनाएं, जुमले और लफ्फाजी है। इसके इतर शायद वे कुछ कर नहीं सकते या करना ही नहीं चाहते। क्योंकि इच्छा शाक्ति होती तो समस्या इस हद तक नहीं पहुंचती। जो स्थिति है उसको देखकर लगता है कि दो-चार सालों में इन पर ध्यान देकर ठीक करने का प्रयास नहीं किया गया तो इनको संभालना संभव नहीं होगा। दुनियां के कई देश आंतरिक हालात और गलत प्रबंधन के कारण बहुत बदतर स्थिति में पहुंच गए हैं। कहीं हम भी उसी रास्ते पर तो नहीं जा रहे हैं? यह गंभीरता से विचार करने का विषय है। जितनी देर होगी, समस्या को संभालना मुश्किल होता जाएगा। इसका समाधन केवल एक योजना या किसी एकांगी कार्यक्रम से नहीं किया जा सकता। इसके लिए बहुस्तरीय प्रयास करना होगा। धन्यवाद

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पेड न्यूज़: भुगतानशुदा ख़बरें

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लेखक: Dr.Ramashanker Kushwaha (rsmoon.kushwaha@gmail.com)

आम तौर पर लोग यह मानते हैं कि 2009 के लोकसभा चुनाव में ‘पेड न्यूज’ का चलन सामने आया। लेकिन आप सब जानते हैं, इस तरह की कोई घटना अचानक नहीं होती। उसका कोई न कोई पुराना संदर्भ रहता है। उसकी जड़ बनती है। ‘पेड न्यूज’ का चलन 1995 में शुरु हो गया था। इसमें दो राज्य अग्रणी थे- महाराष्ट्र और गुजरात। पेड न्यूज तब भी इसी रूप में था। लेकिन एक-दो राज्यों तक ही सीमित था। मतलब कि विधन सभा के चुनाव में पेड न्यूज का चलन 1995 में शुरू हो गया था। इस बात का प्रमाण दैनिक अख़बार ‘जनसत्ता’ से मिलता है। 1995 में महाराष्ट्र में चुनाव कवर करने ‘जनसत्ता’ से कुछ लोग गए। वहां से लौटने पर उन लोगों ने तत्कालीन ब्यूरो चीफ रामबहादुर राय को जो रिपार्ट दी, उसमें इस बात का खुलासा हुआ। उदाहरण के लिए ओमप्रकाश सिंह ने उन्हें बताया कि आपने हमें भेजा और हम लोगों ने रिपार्ट भेजी, वह ‘जनसत्ता’ में छपी। लेकिन वहां के संवाददाता विधानसभा क्षेत्रों में घूम रहे हैं, देख रहे हैं, ख़बर भी दे रहे हैं, लेकिन उनकी कोई ख़बर छप नहीं रही है। ख़बर छप रही है- लेकिन वह जो पार्टी के दफ़्तर से बनाकर अख़बारों को दी जा रही है।

        2009 के लोकसभा चुनाव तक भुगतान शुदा ख़बरें कई अख़बारों की कार्य पद्धति का हिस्सा हो गयीं। कई जगहों पर ख़बरों का यह धंधा धड़ल्ले से चलने लगा था। एक घटना बनारस की है, जिसका यहां जिक्र करना आवश्यक है। घटना इस तरह से हुई थी कि 2009 के चुनाव में ‘बनारस’ में तीन उम्मीद्वार चुनाव लड़े। उम्मीद्वार तो और भी रहे होंगे, लेकिन तीन वह थे, जिनमें जीत की टक्कर थी। चुनाव के आसपास एक दिन ‘हिंदुस्तान’ दैनिक अख़बार अपने पहले पृष्ठ पर तीनों उम्मीद्वारों को जीता रहा था। इसी तरह से दूसरे पृष्ठ पर ‘चंदौली लोकसभा’ के सभी उम्मीद्वार जीताए जा रहे थे। खोजबीन करने पर लोगों ने बताया कि अख़बारों ने बाक़ायदा ‘पैकेज’ तय कर दिया है। इसमें यह होता है कि उम्मीद्वार जो लिखकर देता है, वही ख़बर के रूप में अख़बारों में छपता है। उस समय मृणाल पांडे हिंदुस्तान की संपादिका थीं। हिंदुस्तान के लोग बनारस के तत्कालीन उम्मीद्वार मुरली मनोहर जोशी से संपर्क किए थे। चूंकी मृणाल पांडे मुरली मनोहर जोशी की संबंधी हैं। इसलिए जोशी जी उनसे शिकायत किए। परिणाम स्वरूप उन्हें ‘हिंदुस्तान’ को पैसा नहीं देना पड़ा। लेकिन उन्हें अन्य अख़बारों में अपनी ख़बर छापवाने के लिए पैसा देना पड़ा।

        यह बात जब खुली तो पत्रकार ‘रामबहादुर राय’ ने ‘प्रभाष जोशी’ को यह सूचना दी कि बनारस में तो यह सब हो रहा है। ‘प्रभाष जोशी’ इस मामले में अपने संपर्कों के द्वारा अनेक जगहों पर जांच-पड़ताल करवाए। उस मामले में पता चला कि घोसी से चुनाव लड़ रहे अतुल कुमार अंजान से भी पैसा मांगा गया। अतुल कुमार अंजान ने उस घटना पर लिखा- ‘शादी में जैसे गाजे-बाजे वाले होते हैं और वे पैसा मांगते हैं, रेट तय करते हैं। वैसे ही चुनाव में अख़बार वाले हो गए हैं।’

        जब बात फैली तो पता चला कि देश के कई हिस्सों में ऐसा हो रहा है। लखनऊ में लालजी टंडन ने अपनी आम सभा में कहा कि ‘दैनिक जागरण’ के नरेन्द्र मोहन हमारे मित्र हैं। लेकिन ‘दैनिक जागरण’ के लोग हमसे पैसे मांग रहे हैं। मैं एक पैसा नहीं दूंगा, चुनाव भले हार जाऊं।’ तो मुख्य बात यह कि इस व्यवस्था के खिलाफ कुछ लोग आवाज़ उठाए। आवाज़ उठाने वालों में पत्रकारिता से राजेनीति में आने वाले कुछ दिग्गज भी थे।

        इस प्रकार धीरे-धीरे पूरे देश से बात आई कि 2009 के चुनाव में यह सब खूब हो रहा है। आन्ध्रप्रदेश में पत्रकारों के एक ग्रुप ने शोध् किया तो पता चला कि वहां भी यही धंधा है। फिर अनेक पत्रकार, जो ‘पत्रकारिता की सुचिता’ को बनाये रखने के लिए प्रयास कर रहे थे, उन्होंने इस समस्या का व्यापक अध्ययन किया और करवाया। शोध से यह बात सामने आई कि यह भ्रष्ट आचरण का खेल ‘हिंदुस्तान या दैनिक जागरण’ तक ही सीमित नहीं है। मीडिया ने ‘चुनाव क्षेत्र’ के आधर पर एक रेट बना लिया है। जैसे कि आलू-टमाटर, फल या अन्य सब्जी बेचने वाले रेट तय करते हैं कि आज फलां सब्जी या फल पचास रुपया किलो बिकेगा। तो आप जिस दुकान पर भी जाएंगे, वही भाव मिलेगा। उसी तरह से अख़बार वालों ने हर जगह अपना रेट तय कर दिया था। उसमें कुछ भी ऊपर-नीचे नहीं होता था।

         2009 के चुनाव के बाद ‘भुगतान शुदा’ ख़बरों की समस्या को लेकर ‘बीजी वर्गीज, प्रभाष जोशी, निखिल चक्रवर्ती, अजीत भट्टाचार्य’ आदि तीन-चार लोग प्रेस काउंसिल के तत्कालीन चेयरमैन ‘ए.एन.रे.’ के पास गए और उनसे कहा कि आप ‘पेड न्यूज’ के मामले पर जांच करवाइए! ‘ए.एन.रे’ की अध्यक्षता में एक तीन सदस्यीय जांच समिति बनाई गई। ‘परांजय गुहा ठकुरता’ भी उसमें थे। उस समिति ने पूरे देश में घूम-घूम कर ‘पेड न्यूज’ से संबंधित घटनाओं पर एक विस्तृत रिपोर्ट तैयार की। इस रिपोर्ट से जो तथ्य सामने आए, उसे चुनाव आयोग ने संज्ञान में लिया। मामला बढ़ा तो संसद में ‘पेड न्यूज’ पर बहस हुई। हालांकि उस रिपोर्ट के बाद जैसा होना चाहिए था, वह तो हुआ नहीं। लेकिन दो-तीन मामले न्यायालय तक गए। अशोक चौहान का मामला हुआ। डीपी यादव की पत्नी उमलेश यादव बदायूं से लड़ीं थीं। जांच से साबित हुआ कि उमलेश यादव ने मीडिया को पैसे दिए थे। उनकी सदस्यता खत्म हुई। इस प्रयास के कारण ऐसे चार-पांच लोगों के चुनाव रद्द हुए।

        2009 के चुनाव में आशोक चैहान ऐसे ही पकड़े गए। उनके चुनाव क्षेत्र के लगभग सभी मराठी के अख़बारों ने एक ही ख़बर छापी। उनके मामले में तो केवल ख़बर एक नहीं छपी, बल्कि शब्दशह मिलती हुई ख़बर छपी। शिकायत होने पर प्रेस काउंसिल ने समिति बनाकर जांच की और यही बात निकलकर सामने आई कि ख़बर एक ही जगह से प्रायोजित कर लिखी गई है और सब जगह छपी है। प्रेस काउंसिल की रिपोर्ट के आधार पर चुनाव आयोग ने उनकी सदस्यता खत्म कर दी। फिर वह उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय गए। न्यायालय ने चुनाव आयोग के फैसले को बरकरार रखा।

        ‘पेड न्यूज’ में दो पक्ष शामिल हैं- पहला पक्ष मालिकों का है। जितने भी मीडिया हाउस हैं, उनकी जिम्मेदारी यह है कि जब चुनाव हो तो वह स्वतंत्र आंकलन करके आम आदमी को वस्तु-स्थिति के बारे में बताएं। निष्पक्ष सूचनाएं दें। यह दायित्व उन्होंने खुद लिया है। जिससे कि समाज में स्वतंत्र रूप से और निष्पक्ष सूचना का प्रसार होता रहे। इसकी जिम्मेदारी मीडिया ने स्वयं लिया है। यदि वे पैसे लेकर ख़बर प्रयोजित करते हैं तो इसका मतलब यह है कि आप लोकतंत्र के बुनियादी सिद्धान्त को तोड़ रहे हैं। आप मुनाफे के लिए जा रहे हैं। इस तरह से तो लोकतंत्र खत्म हो जाएगा। दूसरा पक्ष है पत्रकारों का। जैसे समाज में होता है, वैसे पत्रकारों में भी है। कुछ पत्रकार भी भ्रष्ट हैं। पैसे लेकर काम करते हैं। ऐसे पत्रकारों की सामाजिक गरिमा नहीं होती। कोई उनको सम्मान नहीं देता। लेकिन यही काम जब मीडिया घराने करने लगेंगे, तो इसका मतलब यह कि मीडिया घराने भ्रष्ट हो गए और मीडिया हाउस भ्रष्ट हो जाता है तो उसमें काम करने वाले पत्रकार निष्पक्ष हो ही नहीं सकते।

        जी.एन.रे के नेतृत्व में जो रिपोर्ट तैयार हुई, उसको ‘काली ख़बरों की कहानी’ नाम से पुस्तकाकार प्रकाशित किया गया। फिर इस पर ‘माखनलाल चतुर्वेदी विश्वविद्यालय’ और ‘प्रज्ञा संस्थान, दरियागंज’ के संयुक्त आयोजन में दो दिवसीय संगोष्ठी हुई। उसमें ‘पेड न्यूज’ के कई भुक्तभोगी वक्ता के रूप में आए और बोले। देश की कई बड़ी पत्रिकाओं ने इस पर वैचारिक लेख छापे। ‘प्रथम प्रवक्ता’ नाम की पाक्षिक पत्रिका ने एक अभियान चलाया और ऐसे लोगों को खोजा जो इसके पीड़ित थे। पत्रिका ने उनके विचार छापे।         ‘पेड न्यूज’ को अख़बार वालों ने अपने मुनाफे का जरिया बना लिया है। जानकार मानते हैं कि 2009 के चुनाव में अकेले ‘दैनिक जागरण’ ने कम से कम दो सौ पचास करोड़ रुपये कमाए। ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ पेड न्यूज के धंधे में आज भी है। उसका ‘दिल्ली टाइम्स’ इसका उदाहरण है। वही पेड न्यूज का मास्टरमाइंड है। उन्होंने उसका तरीका खोजा। साथ ही राजनीतिक दल और उम्मीद्वारों को यह व्यवस्था सहूलियत देने वाली लगती है। आज भी राजनीतिक दलों की अख़बार और मीडिया घरानों से डील होती है और दल उनको पैसे देते हैं। चुनाव आयोग में नियम है कि विज्ञापन पर जो खर्च है, वह उम्मीद्वार के खाते में जाएगा। तो उम्मीद्वार को यह न दिखाना पड़े, इसके लिए ‘विज्ञापन’ ख़बर के रूप में प्रायोजित होने लगे। इससे पेड न्यूज का धंधा चल पड़ा। एक बात और स्पष्ट कर दूं कि ‘पेड न्यूज’ किसी भी रूप में विज्ञापन नहीं है। यह एक तरह से ‘मेज के नीचे का धंधा’ है। जैसे आप रिश्वत देते हैं तो दिखाकर नहीं देते, ठीक वैसे ही पेड न्यूज है। छिप कर चलने वाला खेल। पैसे के एवज में उम्मीद्वार का प्रचार किया जाता है।
धन्यवाद