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लेखक: Dr.Ramashanker Kushwaha (rsmoon.kushwaha@gmail.com)
भारतीय परंपरा में होली सबसे पुराने त्यौहारों में से एक है। यह ऋषि और कृषि समाज का उत्सव है। पूरे देश में मनाया जाता है। हर क्षेत्र विशेष में होली गाने/मनाने की परंपरा अलग है। रंग और संगीत दोनों साथ चलते हैं। यह कहीं पांच दिन-सात दिन, तो कहीं महीने भर का उत्सव है। भोजपुरी जनपद में माघ मास की शुक्ल पंचमी (बसंत पंचमी) के दिन से फगुआ के लिए ढोलक चढ़ जाती है। लगभग महीने भर बाद होली के दिन इस परंपरा का चर्मोत्कर्ष होता है। बसंत पंचमी के दिन से सम्मत (होलिका) के लिए तैयारी शुरू हो जाती है। एक साबूत सुपारी, सवा रुपया, ऊख (गन्ना) का एक पौध, फुनगी के साथ हरे बांस की कईन, हरा रेड़ (अरंडी), गेहूं, जौ, चना, मटर, सरसो आदि के पौधे को जमीन में रोप कर होलिका की नींव डाली जाती है। उसके बाद होलिका दहन के लिए गांव के लोग गोहरा (उपला), चइला, सूखा पेड़, काठ, बांस आदि उस स्थान पर इकठ्ठा करते हैं। यह प्रक्रिया महीने भर चलती है। होलिका दहन के दिन हुड़दंगी किसी की भी मड़ई/टाटी (झोपड़ी) उठा ले जाते हैं। होली की पूर्व संध्या/रात्रि पर होलिका दहन मुहुर्त के अनुसार किया जाता है। उसके ठीक पहले घर के सभी सदस्यों को बुकवा (ऊबटन) लगाया जाता है। उस बुकवा से जो भी मैल निकलती है उसको ले जाकर सम्मत में डाल दिया जाता है। ऐसी मान्यता है कि इससे दुख-दारिद्र दूर हो जाता है। हारी-बीमारी सब ख़त्म हो जाति है। साल भर की समस्या होलिका के साथ ही जल जाती है।
होलिका जलते ही गांव में हुड़दंगियों का समूह सक्रिय हो जाता है। सब अपने पदीहा (खासकर भउजाई) का नाम लेकर जोगिरा बोलते हैं। इसके केंद्र में आंतरिक भावों का उद्गार रहता है। यह भाव कई बार सामाजिक दृष्टि से अशोभनीय शब्दों के द्वारा भी व्यक्त होते हैं। इसको सामाजिक बनाने के लिए ‘बुरा ना मानो होली है’ का जुमला साथ चलता है। इस दृष्टि से होली उत्साह और धैर्य का भी त्यौहार है।
यह भाव तुकबंदी और गीत के माध्यम से व्यक्त होते हैं। इस समय युवा रचनाशीलता आसु कविता के रूप में उपफान पर रहती है। नई-नई तुकबंदियां सुनने को मिलती हैं। जो जितना ज्यादा रचनाशील होता है उसे उतना अधिक जोगिरा बोलने का मौका दिया जाता है। इस रचनाशीलता में भदेस (फुहड़पन) भी अपने चरम पर रहती है। इसे स्त्रियां रस लेकर सुनती हैं। देवरों का यह भाव भाभियों के स्वभाव के अनुसार व्यक्त होता है। जो शांत स्वभाव की भाभियां होती हैं उनको लोग कम तंग करते हैं। चंचल और मुखर स्वभाव की भाभियां को अधिक परेशान किया जाता है। असल में वे परेशान नहीं होती, बल्कि समान रूप से वह भी इस उत्सव और सामाजिक छूट का खूब आनंद लेती हैं। खूब मसखरी-ठिठोली चलती है।
होलिका दहन के लिए केवल पुरुष जाते हैं। उस समय गांव भर की स्त्रियां गांव के एक छोर पर इकठ्ठी होती हैं और गीत गाती हैं। उनकी गीतों में भजन के साथ हास-परिहास-उल्लास का भाव रहता है। दुआएं रहती हैं। लोक की बड़ी विशेषता यह रही है कि वह कभी अमर्यादित नहीं होता। सीमा नहीं तोड़ता। नियंत्रण के तरीके साथ चलते हैं। उदाहरण के लिए हुड़दंगों की गतिविधियों पर बड़े-बुजुर्ग निगाह लगाए रखते थे। इससे अभद्रता नहीं होती थी। युवाओं में भी ऐसे लोगों का प्रभाव था। उनकी कद्र थी। अब जो जगह-जगह झगड़े-झंटे सुनने में आते हैं, वह तो नशा के आधुनिक तरल पदार्थ की प्रतिक्रिया है। जिसका आस्वादन करने के बाद इंसान अपना-पराया, अच्छा-बुरा सब भूल जाता है। लोक-मर्यादा ताक पर रखने की परम्परा शराबखोरी के बाद शुरू हुई। इसके पहले भांग पीने की परम्परा थी, लेकिन वह मर्यादित परम्परा थी।
हुड़दंगों की टोली रात में ही कीचड़/गोबर के साथ होली खेलना शुरू कर देती है। उम्रदराज और चिड़चिड़े स्वभाव के लोगों को जानबूझकर तंग किया जाता है। क्योंकि वे लोग परेशान करने वालों को खूब अपशब्द कहते हैं। इस दिन जो भी घटित होता है, उसे देखकर यही कहा जा सकता है कि कृषक समाज ने साल में फुहड़पन के लिए भी एक दिन सुनिश्चित कर रखा है। ताज्जुब यह है कि यहां ‘फुहड़पन भी मर्यादित’ होता है। वातावरण की मधुरता भंग नहीं होती। सब उमंग में होते हैं। उल्लसित रहते हैं। इस भदेसपन में भांग का तड़का और अधिक उल्लास भर देता है। भंग का आस्वादक शराबियों की तरह कभी किसी और को परेशन नहीं करता।
होली (धुरहंडी) के दिन पकवान बनता है। रंग-गुलाल के साथ संगीत भी सबाब पर होती है। दिन में आधे पहर के बाद संगीत शुरू होती है। इस संगीत में बहुत विविधता होती है। भजन-कीर्तन से लेकर, खेती-किसानी, हास-परिहास और बिरह के गीत गाए जाते हैं। प्रारंभ देवी सुमिरन के साथ होता हैः-
‘सुमिरो आज भवानी हो माया, सुमिरो आज भवानी/
कहवां भवानी मइया जन्म हुआ है, कहवां जाई समाई हो माया?
इहवां भवानी मइया जन्म हुआ है/ विंध्यांचल में समाई हो माया।’
होली बिना शिव को याद किए कैसे पूरी हो सकती है और जब शिव को याद करेंगे तो गउरा (पार्वती) भी साथ ही होंगी। देवी के सुमिरन के बाद ‘शिव-गउरा’ को होली खेलते हुए याद किया जाता है-
‘शिवशंकर खेलै फाग गउरा संग लिए।
काही चढ़ल शिवशंकर खेलैं, काही चढ़ल भगवान गउरा संग लिए?
बसहा (बूढ़ा बैल) चढ़ल शिवशंकर खेलैं, गरुण चढ़ल भगवान, गउरा संग लिए।’
इसके बाद शुरू होती है हुड़दंगा। जिसमें जोगिरा से लेकर हास-परिहास लोकधुनों और ढोलक-झाल-पखावज जैसे वाद्ययंत्रों के माध्यम से व्यक्त किया जाता है। अनेकानेक विषय होते हैं गीत में।
ईश बंदना के बाद ज्यादातर शुरुआत खेती-किसानी से संबंधित गानों से होती है। खेती-किसानी में स्त्रियां भी जुड़ी रहती हैं। बल्कि यह कहना कि उनकी बराबर की भूमिका होती है, अतिशयोक्ति नहीं होगी। यह अलग बात है कि वहां भी समाज मुखिया पुरुष को ही मानता है और पुरुष अपनी मनमानी करने से बाज नहीं आता। शिकायत करने पर लड़ने पर उतारू हो जाता है। इसी प्रकार के भाव को व्यक्त करने वाली और फागुन में गाई जाने वाली एक गीत हैः-
‘बेरिया के बेर हम बरजी बलमुआ की उख जनि बो….वा हो गोइड़वां,
बोवत क मास लागे छवही महीना, काटत लागे…हो बरिसवा,
सोरहो सिंगार कइके गइलीं कोल्हड़वां, लवाही घिंच मा….रे हो बलमुवा।’
होली में भाभी-देवर का हास-परिहास चरम पर होता है। गांव के रचनाशील लोगों के लिए इस तरह के विषय कच्चा माल की तरह होते हैं। इस समय उनकी रचनाशीलता अपनी पूरी बारीकी और कलात्मकता के साथ उपफान पर रहती है। यह कपोल-कल्पित नहीं बल्कि रचनाकार के व्यक्तिगत अनुभव और समाजदर्शन को व्यक्त करती है। देवर भाभी के हास-परिहास पर एक गीत हैः- ‘भउजी क मरकहवा कजरवा सबके दीवाना बनवले बा,
आंख में कजरा, बाल में गजरा, होठ पर लाली लगवले बा,
भउजी का मरकहवा कजरवा….।
नायिका के बिरह के लिए बारहमासा वर्णन साहित्य में बहुप्रचलित है। कालिदास और मलिक मुहम्मद जायसी तक ने इस पर हाथ आजमाया है। लोक में भी इसका प्रचलन कम नहीं है। यहां बारहमासा के बजाय ट्टतु-वर्णन की परंपरा है। उसका कारण यह है कि किसान की फसल ‘ट्टतु-परिवर्तन’ से जुड़ी है। भोजपुरी फगुआ में भी इस ऋतुवर्णन के रूप आप देख सकते हैं-
‘मोरे सइयां के सूरत नगीनवा हो नगीनवा, ना घर अइलन सजनवा।
चार महीना बा गरमी क दिनवां, टप-टप चुवे पसीनवा हो पसीनवा…ना घर अइले….।
चार महीना बरसात क दिनवा, टप-टप चुवे भवनावां हो भवनवां….ना घर अइले…..।
चार महीना बा जाड़ा क दिनवा, थर-थर कांपे बदनवां बदनवां…ना घर अइले…..।
(नायिका के पति बाहर हैं। प्रत्येक ऋतु में उसको अलग तरह का कष्ट होता है। वह अपने कष्ट को महीने के अनुसार होने वाले दुख से जोड़कर बताती है। इस विरह का रूप बहुत व्यापक है।)
ऋतु वर्णन से इतर भी कई ऐसे गीत हैं जिसमें विरह का वर्णन देखने को मिलता है। राधा जब पानी भरने जाती थीं तो वहां कृष्ण मिलते थे। वे तालाब के पानी से कपड़ा गिला कर देते थे। लेकिन इस बार के फागुन में ऐसा नहीं हुआ। वह अपनी सखी ललिता को बताती हैं-
‘फगुनवा दिनवा ना अइले मोहनवा ए ललिता……।
पानी भरे जात रहलीं ओही पानी घटवा अइ हो बाबा…।
ललका झुलवा भीजेला मोहनवा ए ललिता……।
फगुआ के ताल के बराबर में ही एक गीत और चलती है, जिसे ‘लचारी’ कहते हैं। इसे भी ‘एकहरी ताल’ में ही गाया जाता है। यह भोजपुरी गायन की एक विधा है। इसमें प्रचलित एक गीत का भाव यह है कि देवर को भाभी घर मे बुलाती है और दरवाजा बंद कर देती है। इससे देवर डर जाता है। उसको समझ नहीं आता है कि भइया पूछेंगे तो मैं क्या जवाब दूंगा। वह मेरे गलत व्यवहार के कारण घर से बाहर निकाल देंगे। इस क्रम में देवर-भाभी प्रश्न-प्रतिप्रश्न करते हैं। यह गीत संवाद शैली में कुछ इस प्रकार है-
‘काहे खातिन भउजी हमके घरवा में बोलवलू, काहे हो देहलू ना, भउजी हे बजरन (मजबूत) केवड़िया ?/ हंसहि खेलइके देवरु घरवा में बोलवलीं, सूते हो खातिन ना, देहली हे बजरन केवड़िया। /हंसत खेलत क देवरु बड़ा नीक लागेला, कि दिनवा हो दिनवा ना, हमार देहिया गढ़ूवइलीं…/ जेहि जानि जइहे देवरू तोहरो बड़का भइया, तो करि हो दी हे ना, हमके घरवा से बहरिया।’
ऐसे ही एक लचारी में ननद-भाभी का संवाद है। यह सवाल-जवाब की शैली में है। वह संवाद लोक में प्रचलित रूपक का सुंदर उदाहरण हैः-
‘कवने रंग मूंगवा कवन रंग मोतिया, कवन हो रंगवा ना, ननदी रे तोर बिरना?
लाले रंग मूंगवा, सबूज (सफेद) रंग मोतियां, सांवर हो रंगवा ना….ननदी रे तोर बिरना…../ काही भइले मूंगवा, काही रे भइले मोतिया काही रे भइले ना, ननदी रे तोर बिरना?/ टूटी गइले मूंगवा, छटकी गइले मोतिया, कोहांई रे गइले ना, ननदी रे तोर बिरना।’
यह लोक का रंग है जो अनेकानेक प्रकार से फागुन मास में यत्र-तत्र बिखरता है। इसकी सुगंध् बसंत पंचमी से फैलनी शुरू हो जाती है और एक महीने तक प्रदेश की जनता को अपने रंग में सराबोर किए रहती है। इसका आस्वादक कभी उबता नहीं। थकता नहीं। ताजगी से सराबोर रहता है। होली तक ही नहीं, उसके बाद ‘बुढ़वा मंगल’ तक ढोलक की थाप पर पांव की थिरकन रूकती नहीं है।